एक बार जनक महाराज को एक विचार आया कि क्या कोई घोड़े पर चढ़ने की समय के अन्दर भगवान के साक्षात्कार और आत्माज्ञान सुना सकता हैं?
एक दिन उसने सभा रखी । वहां ज्ञानी, संत, विद्वानों ने सभी इकट्ठा हुए। जनक महाराज ने कहा अगर कोई घोड़े पर चढ़ने की समय के अन्दर भगवान के साक्षात्कार करा सकते हैं तो वह मंच पर आएं । कोई आगे नहीं बढ़ते है । उसी समय वहां अष्टावक्र आता है । अष्टावक्र मतलब उसके देह के आठ भाग वक्र होता है । उसे देख कर पूरा सभा हंसने लगी । उनके हंसी रुकने के बाद अष्टावक्र सभा को देख कर हंसना शुरू किया ।
जनक ने पूछा-
“क्यों हंस रहे हों ?”
अष्टावक्र ने कहा-
” मुझे लगा था इस सभा में सभी ज्ञानी थे लेकिन यहां तो सिर्फ चर्म के व्यापारीयों और वैश्यावृत्ति करनेवाले बैठे हैं ।”
जब राजा ने पूछा-
” ऐसे कैसे कह सकते हों तुम। ”
अष्टावक्र ने कहा-
” चर्म के व्यापारीयों को चर्म अच्छा हो तो काफी है, भीतर क्या है; उन्हें संबंध नहीं है । वैसे ही वैश्यावृत्ति करनेवालों को भी रूप ही मुख्य होता है ।
चर्म और रूप से ज्यादा भीतर की अंतस्सत्व ही मुख्य है । ”
जनक महाराज ने उसे मंच पर बिठाया ।
मनुष्य की भीतर की रूप ही सच्चा रूप है ।
अनुवादक : प्रमोद मोहन हेगड़े