श्री रामचंद्रापुर मठ में एकादशी के दिन स्वादिष्ट व्यंजनों का लंगर!

स्वानुभव

जी हाँ! यह लंगर हर एकादशी पर श्रीरामचंद्रापुर मठ के आश्रय में सायं ठीक ६ बजे से प्रस्तुत किया जाता है। आप सोचते होंगे – यह क्या है! श्रीमठ में एकादशी के दिन, वह भी सायंसंध्या में , जिस समाय भगवान् जी घर पधार रहें हों- तब भॊजन…..!!! ऐसे सोच के आप चौंक गये होंगे !!! आइये…! और देखिये…! आप भी इस लंगर में सहभागी होकर जानें । इस भोजन को अपना मन संतुष्ट होने तक सेवन करते रहें । विशिष्ट है यह उपासना। अद्वितीय है। कन्नड के महाकवि श्री पुरंदरदास जी नें उनके दाससाहित्य में कहा है ना!? ‘रामा नाम पायसक्के कृष्ण नाम सक्करे विठ्ठल नाम तुप्पव बेरसी बाय चप्परिसिरो’ – ( जिस का अर्थ है : ‘राम नाम के खीर में कृष्ण नाम के शक्कर को मिलाकर, विठ्ठल नाम के घी भी मिलाकर चटखारे लेकर खाओ’)। इस एकादशी त्योहार के उपासना में आध्यात्मिकता, भक्ति, विचारधारा, संगीत, साहित्य जैसे नाना प्रकार के व्यंजनों को, स्वादपूर्वक प्राणशक्तिचेतना देनेवाले प्रवचन जैसे अन्न के साथ परोसा जाता है। इस उपासना में पकाने के लिये भक्तिपंथ के अग्रेसरों के रचनाए ही रसोई के मूलपदार्थ हैं । संगीत के उपकरण ही खानें में मिलाए जाने वाले मसाले हैं | साहित्य ही इन सबको पकानेवाले पतीले हैं । नये-पुराने गायकों के भजन ही भोजन और विशेष भक्ष्य-भोज्य हैं ! इन सब को भक्ती के प्राण में मिलाकर, नाद रूपी अग्नी में, संगीत का स्वादयुक्तपाक में, आत्मा को परोसतें हैं- साक्षात आदी श्रीशंकराचार्य स्वरूपी श्रीसंस्थान । खानेवाले को इससे अधिक सौभाग्य और क्या होगा? इस उपासना में मनपूर्णसंतुष्ट होके खाने के बाद आनंद ही अनंद के तृप्ती का डकार कैसे नही आयेगा ?

 

दिनांक १९ नवेंबर २०१८ के पुण्यदिन में प्रस्तुत किया गया इस नादोपासना में, संतुष्ट होकर खानेवालों में से मै भी एक हूँ। श्री पुरंदरदास जी के पिळ्ळारी गीत ‘लोंबोदर लकुमिकर’ और ‘केरेय नीरनु केरेगे चेल्लि’ जैसे गीतों के बारे में, संगीत शास्त्र के गहरे विचार, रचयेता श्री पुरंदरदास जी के मन के भाव आदी प्रमुख अंशों में लपेटे हुए, अपने प्रवचनामृत को परोसने के बाद श्रीसंस्थाना नें , कर्नाटक के महान संत शिशुनाळ शरीफ़ जी के और श्री कनकदासजी के दो-दो रचनाअों के साथ ही आंध्र के श्री भद्राचल रामदास जी के दो रचनाअों का महामेल के स्वादपूरित भक्ष्यों को भी, अन्नप्राण के साथ जो परोसे – हम सभ खाकर तृप्त हो गये।

 

श्रीसंस्थान ने, दिग्गज संगीतकारों की रचना में छुपे, उनके मन के भावों को, उन रचनाअों के उद्देश्य को, शिष्यभक्तों को बताते हुए, हर एक साहित्य में छुपे रहस्यों को, लिखनेवालों के हृदय में बसे बातों को, मेरे जैसे सामान्य मनुष्यों को भी समझाते हुए, उपदेश देते हुए, नादोपासना में सभी की रुची बड़ाते हुए, संगीतसाधना को ‘धर्मार्थकाममोक्षाणां इदमेवैक साधनम्’ भाव से, भक्तगणों को संगीत के कृतियों द्वारा संगीत शास्त्र में गड़े हुए विचारों को मनन करवाए। इसको ही हर ‘रामपद’, ‘भावपूजा, ‘रामकथा’ आदी कार्यक्रमों में प्रस्तुत करते रहते हैं।

 

हर एक ‘रामपद’ कार्यक्रम आध्यात्मिक विषयों को उपदेश देने के अलावा बहुत सारे दिग्गज संगीतकारों को अनावरण करते हुए, उनके कृतिरत्नों का परिचय कराते हुए, नये नये कलाकारों को भी प्रदर्शनमंच देकर श्रोताओं को उनके कला का प्रभुत्व का परिचय दे देता है। मेरे मन में यह भाव आया की कि संगीत के बारे में बहुत से विचारों को लेते हुए, कृतिकारों के भाव को, आदर्शों को प्रतिबिंबित करते हुए, ऐसे कार्यक्रमों में संगीतकारों और संगीत के विद्यार्थीयों को भी भाग लेकर, मन लगाकर सब सुनकर, जब अपने आप गाने की बारी आती है, तब साहित्य में छुपे भाव को कैसे समझें?, साहित्य पोषण के लिए संगीत का उपयोग कैसे करें?, आदी विषयों को सूक्ष्मरूप से समायोजन करके प्रस्तुत करें तो कितना सुंदर होगा! है ना !!?

 

हमारे श्रीसंस्थान बहुत ही भावपूर्ण हैं। नरम-दिल के मधुरभाशी हैं। सुश्राव्य कंठ में जब श्रीसंस्थान श्लोक-गीतों को गातें हैं तब हमारा दिल सदा उनको सुनता है – मन नम हो जाता है। पूरक गायन में जो कलाकार साथ देते हैं वह भी खूबसूरती से साथ देते हैं। हार्मोनियं में वि. प्रज्ञान लीलाशुक उपाध्याय जी , सितार में वि. सुब्रह्मण्य हेगड़े जी और तबला वादन में वि. गणेश भागवत जी मिलकर बहुत ही अच्छी तरह से मधुरिम श्रुती में, स्वरलयों को अनुसरण करते हुए, स्वरालंकार से कार्यक्रम की शोभा बढाते हैं।

 

श्रीसंस्थान के प्रवचन के मुख्यांश :
* गणपति जी के आँखों के जैसे, देखनेवाला आँख छोटे होकर, पचन करनेवाला पेट बड़ा होना चाहिये ; ना की मानव के जैसे, चारों ओर देखकर सब चीज़ों को चाहकर- हर वस्तू की मोह करते हुए बड़ी -बड़ी आँखों के साथ बात को न पचानेवाला पेट- नहीं होना चाहिये।
* कन्नड़ के गीत ‘केरेय नीरनु केरेगे चेल्लि, वरव पडेदवरंते काणिरि”(भाव : तालाब के पानी को तालाब में फेंको. तब आपको वरदान मिलेगा (नेकी कर और दरिया में ड़ाल) ) अगर पानी तालाब में फेंककर भी आप के हाथ गीले रहें तो आप सौभाग्यवान् हो जायेंगे।
* ज़िंदगी में परेशान न होकर, मन में धीरज रखें, भगवान के होने का एहसास रखते हुए अपने आत्मा को बल दें।
* मानव की इच्छायें, मनोदशावों के अनुसार ही मंत्र बन जाते हैं। वह बुरा या अच्छा उद्देश्य के लिए भी प्रयोग हो जाते हैं । लेकिन इस तरह के कोई भी अनुरोध के बिना ‘श्रीराम जयराम जयजयराम’ के तारक मंत्र को जापकर, रामनाम के इस अस्त्र को, भक्त के अंतरंग में छुपे अज्ञान के साथ युद्ध करायें तो सात्त्विकता विजयी हो जाती है। इस तरह से श्रीराम के विजय के साथ ही आप भी विजयी हो जाते हैं।
* संगीत ही सरस्वती है | वह विश्वजननी है। ऐसे में श्री पुरंदरदास जी को ‘संगीत का पितामह’ कहें तो, या फिर गांधीजी को ‘राष्ट्र के पिता’ कहें , तो इन शब्धों का विपरीत अभिप्राय न निकाले तो बहतर होगा।
* जो भी, जब भी गाए , तो वह खुद राग-साहित्यों को सुखद महसूस करके, फिर आनंद से गाएं।
* सहजता, विरोधाभास इत्यादी शब्धों के सही अर्थों को समझाने के विधी- और भी अधिक बातें …..
अब भी श्रीगुरूजी के कहे हुए वाक्यों के भावार्थ को मन ही मन मेँ और भी चबाते हुए… चटकारें ले रहीं हूँ मैं।

 

शिष्य के अहंभाव-अज्ञान जैसे विषसर्पों को, मुस्कान से ही वश में करके, कालकूट को शमन करनेवाले सपेरा बन गयें हैं श्रीसंस्थान । मृत को अमृत करानेवाले महास्संस्थान श्री शंकराचार्य श्रीश्री राघवेश्वरभारती महास्वामीजी हमेशा ऐसे ही मुस्कुराते हुए शिष्यभक्तों को अमृत पिलानेवाली श्रीमाता बनें रहें । परमपूज्य श्रीसंस्थान के श्रीचरणों में भक्तिपूर्वक सहस्रनमन समर्पित करते हुए, उस दिन के कार्यक्रम में उपस्थित सभी भक्तश्रोतावों के ओर से भी दिल से आभार प्रकट कर रहीं हूँ।

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