जनक महाराज एक बार साधु-
“संत, विद्वानों से भरी सभा में एक प्रश्न पूछा ” कौन मुझे अती कम समय में आत्माज्ञान देकर साक्षात्कार कर सकते हैं?”
तब अष्टावक्र ने कहा-
“मैं कर सकता हूं लेकिन एक शर्त है । तुम्हारे सिंहासन, राज्यकोष, तुम्हारा शरीर और मन मुझे देना होगा।”
राजा ने उस शर्त को मान लिया ।
अष्टावक्र-
“तुम्हारा सब कुछ अब मेरी हैं, तुम सिंहासन से नीचे आओ ।”
राजा को महल के द्वार पर रखें जूतों के पास बैठने कहा । बैठे बैठे राजा को सिंहासन, राज्यकोष के चिंता होने लगी ।
अष्टावक्र ने पूछा-
” क्या चिंता कर रहे हों? तुम्हारे मन तो मेरा है ।”
तब राजा को अपने गलती की एहसास होता है । अपने भीतर जाकर चिंतन करता है । कुछ ही समय में आत्माज्ञान से साक्षात्कार होता है । तब अष्टावक्र ने कहा अहं छोड़ते ही आत्माज्ञान होता है । उसे आशीर्वाद करता है, और सब कुछ उसे वापस करता है । राजा को मार्ग दिखा कर अष्टावक्र महागुरु बना ।
अनुवादक : प्रमोद मोहन हेगड़े