एक शहर में धनदत्त और देवदत्त नाम के दो आदमी आजू-बाजू के घर में रहते थें। धनदत्त नाम के अनुसार बहुत ऐश्र्वर्य था उसके पास। देवदत्त के हर दिन की खर्च करने के लिए जितना चाहिए सिर्फ उतना पैसा था।
धनदत्त को रात में भय से नींद नहीं आती थी। किसी भी समय चोर आकर उसके सारे ऐश्र्वर्य को लूट सकता हैं, इसी विचार पर बहुत चिंतित होकर बार बार घर के दरवाज़ा ठीक से बंद है या नहीं उसपे ताला ठीक से लगा है या नहीं देखता रहता था । जैसे श्रीशंकराचार्यजी ने कहा था “पैसेवालों को अपने बच्चों से भी भय होता है”|
धनदत्त देखा, देवदत्त को अच्छी नींद आती थी । उसे कोई चिंता नहीं थी। एक दिन धनदत्त ने तिजोरी भर की धन को देवदत्त को देकर कहा “इन धश से सुखी रहो”।
देवदत्त ने पहले कभी उतना धन नहीं देखा था इसीलिए खुशी से नाचने लगा । लेकिन रात को उसे ठीक से नींद नहीं आती थी । वह विचार करने लगा ‘ इस ऐश्र्वर्य ने मेरे सारे आराम खो गया ‘। अगले दिन सारे ऐश्र्वर्य को धनदत्त को वापस दे कर कहा ” मुझे ऐश्वर्या नहीं चाहिए, आराम चाहिए “।
पैसा सभी को चाहिए, लेकिन मन का आराम उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। धन नहीं है तो हाहाकार, धन हो तो अहंकार। उन दिनों को नियंत्रित करने जितना ऐश्र्वर्य हो तो काफी है। हर कोई इसी दिशा में विचार करके अपने अपने कर्त्तव्य निभाने से पूरी देश सुभिक्ष होता है।
अनुवादक : प्रमोद मोहन हेगड़े